Thursday, December 31, 2009

२०१० में भारत की सुरक्षा तैयारियां और चुनौतियां

आकाश में सुखोई, धरती पर अग्नि और समुद्र में अरिहंत, ये है उभरते भारत की सामरिक ताकत की नई पहचान। इसी पहचान के जरिए आज भारत दुनिया के उन देशों की कतार में खड़ा है जिन्हें विश्वशक्ति का खिताब हासिल है। लेकिन ये तो महज शुरुआत भर है चुनौतियां अभी कई हैं। भूमंडलीकरण और उदारीकरण के दौर के बीच खुद को सबसे बेहतर साबित करने की चुनौती। आर्थिक विकास के साथ-साथ समग्र रक्षा विकास की चुनौती और दुश्मन के आक्रमक इरादों को नेस्तनोबूद करने की चुनौती। ये तो सबको पता है कि पूरी दुनिया की सुरक्षा जरूरतें तेजी से बदल रही हैं। खासकर दक्षिण एशिया में संघर्ष का तरीका तो पूरी तरह बदल चुका है। एक तरफ पाकिस्तान आतंकवाद की आग में जल रहा है तो दूसरी तरफ अफगनिस्तान में शांति बहाल करना अमेरिका के लिए टेढ़ी-खीर साबित हो रहा है। कुछ ऐसा ही हाल भारत के दूसरे पड़ोसी देशों का भी है। श्रीलंका, नेपाल और बांग्लादेश की भी अपनी अपनी मुसीबते हैं, समय-समय पर सिर उठाती भारत विरोधी ताकतें सुरक्षा की चिंताएं बढ़ा रही है। पिछले साल पड़ोसी देश चीन ने जिस तरह से अपनी 60वीं वर्षगांठ पर शक्ति प्रदर्शन किया। उससे भारत को एक नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया। इससे पहले ही चीन, लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक करीब चार हजार किलोमीटर लंबी, वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारतीय सेना के लिए मुश्किलें पैदा करने लगा है। जाहिर है इन सबके बीच भारतीय सेनाओं की महत्वकांक्षा भी बढ़ती नजर आई। बात क्रांतिकारी बदलाव की होने लगी, सुरक्षा तैयारियों में तकनीक का प्रभाव की मांग होने लगी, जैसे देश की राजनीतिक और नौकरशाही दोनों की नींद खुल गई। सुरक्षा तैयारियों को और मजबूत बनाने के लिए बात होने लगी। यही वजह है कि सशस्त्र सेनाओं को नए साजोसामान मुहैया कराने की कई महत्वकांक्षी योजनाएं शुरु की गई है, लेकिन ये योजनाएं सरकारी कार्यप्रणाली की शिकंजे में फंसी हुई है...नौकरशाही की जबड़े में फंसकर कुछ योजनाएं तो दम तोड़ चुकी है और कुछ कछुआ चाल में रेंगने को मजबूर है। इस साल भी बोफोर्स दलाली की वजह से दो दशकों से रुकी पड़ी होवित्जर तोप मिलने की उम्मीद भी ना के बराबर है, सेना को होवित्जर तोप के साथ ही लाइट और मीडियम हेलिकॉप्टर तो चाहिए ही, इसके अलावा पैदल जवानों के लिए एसॉल्ट रायफल और दूसरे साजोसामान की जरुरते पूरा करना, सैन्य अधिकारियों के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है...हालत ये है कि न तो वायुसेना को जरूरी 126 लड़ाकू विमान मिल पा रहे हैं, और ना ही नौसेना अपनी जरुरतों के मुताबिक खुद को तैयार कर पा रही है। नौसेना को ये उम्मीद जरुर है कि नए साल के दौरान रुस से परमाणु पनडुब्बी नेरपा मिल जाएगी...साथ ही कुछ स्टील्थ फिग्रेट और विध्वंसक पोत भी मिलने की उम्मीद की जा रही है, नौसेना को घोषित योजनाओं के मुताबिक समुद्री तटीय विमान और तटीय सुरक्षा को और चाक चौबंद करने की जरुरत है, पड़ोसी देश में बैलास्टिक मिसाइलों की बढ़ती तैनाती भी चिंता की बात है। दुश्मन की मिसाइलों से बचाव के लिए एंटी मिसाइल सिस्टम की जरुरत तेजी के साथ महसूस की जा रही है, लेकिन देश को रक्षा शोध संस्थान में विकसित किए जा रहे एंटी मिसाइल सिस्टम का अब तक परीक्षण ही पूरा नहीं हो पाए है। दूसरी ओर पिछले कुछ साल में भारत विश्व बाजार में हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार बन कर उभरा है, इस दौरान उसने अपने सामरिक नजरिए को भी पूरी तरह बदल लिया। इसी के चलते अब वो परंपरागत हथियार खरीदने के बजाए हवा में ही विमान में ईंधन भरने की तकनीक और लंबी दूरी की मिसाइलें तक खरीद रहा है....लेकिन सच डरावना है, अभी भी हमारी सुरक्षा तैयारिंया काफी ढीली ढाली है,ग्यारहवीं रक्षा योजना को बने हुए तीन साल पूरे हो चुके हैं,लेकिन सरकार अभी तक इसे अंतिम रुप नहीं दे पाई है। रक्षा खरीद प्रणाली भी अभी तक अस्त व्यस्त है.। 2010 में उन प्रणालियों को और ज्यादा मजबूत करना यूपीए सरकार के लिए खासी चुनौती भरी होगी, तुलनात्मक रुप से देखा जाए तो एक और अपनी सुरक्षा बेड़े को मजबूत करने के लिए दुनिया का हर देश अपनी रक्षा बजट को दुगुना तीगुना कर रहे हैं....वहीं भारत अपनी कुल जीडीपी का महज 2 फीसदी ही रक्षा बजट पर खर्च करता है, जबकि चीन 7 और पाकिस्तान का रक्षा बजट पांच फीसदी है। अगर यही हाल रहा तो चीन की बात तो दूर हम पाकिस्तान के मुकाबले भी खड़े नहीं रह पाएंगे...साथ ही हाई टेक्नॉलोजी वाले हथियारों की खरीद और सशस्त्र सेनाओं की आधुनिकरण भरपूर बजट के बिना उम्मीद करना बेमानी है।

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