Saturday, May 14, 2011

वो पांच भूले

पश्चिम बंगाल...देश का एक ऐसा राज्य जो 34 सालों से एक पार्टीतंत्र के कब्जे में रहा...34 सालों से गरीबी, हिंसा और कुशासन से जूझता रहा....लेकिन इस प्रदेश में भी बदलाव का सूरज निकल ही आया। .या यूं कहिए कि लोगों ने जिन सपनों को मरा हुआ मान लिया था...अब वे सपने कुलांचे मारने लगे है....लेकिन बड़ा सवाल ये है कि ये .जीत किसकी है...राज्य की जनता की...ममता के जादू की...या फिर एक पार्टीतंत्र के खात्मे की.....आज भले ही ममता अपनी जीत पर इतरा रही हों....लेकिन इसके पीछे ना तो उनकी दहाड़,  ना जिद और ना ही उनका कोई करिश्मा है....बल्कि इसके पीछे लेफ्ट के वे 34 साल हैं....जिसने बंगाल को हाशिये पर ला खड़ा किया..इसलिए अगर वे अपनी जीत के लिए किसी को शुक्रिया अदा करती हैं...तो सबसे पहले लेफ्ट का शुक्रिया अदा करें ...दरअसल माकपा ने अपनी 34 साल की इस जिंदगी में एक नहीं कई बुनियादी भूलें की...पहली भूल, राज्य में पार्टी और प्रशासन के बीच भेद का खात्मा...जिसके तहत प्रशासन के नियम कायदे की जगह पार्टी के आदेशों ने ले लिया....दूसरी भूल संस्थाओं और क्लबों के जरिए सामाजिक नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश...इसे दूसरे नजरिए से देखें तो पार्टी के कार्यकर्ताओं ने आम जनता की रोजमर्रा की जिंदगी में बड़े स्तर पर दखलअंदाजी की...तीसरी भूल,  अपराधियों को खुली छूट देना. और उन्हें पार्टी के लिए अवैध वसूली जैसे कामों में लगाना....चौथी भूल नाकाबिल नेताओं के हाथ में पार्टी की कमान देना, मसलन जिन्हें मार्क्सवाद का ज्ञान नहीं, भाषा की जानकारी नहीं उन्हें भी पार्टी के अखबार, पत्रिकाएँ और टीवी चैनल चलाने का हक दे दिया गया...और तो और जिस विधायक या सांसद की साख पर बट्टा लगा...उन्हें भी अपने पद पर बिठाए रखा गया....और आखिर में पांचवी भूल है राज्य प्रशासन का मानवाधिकारों की रक्षा के प्रति अनदेखी...इसका नतीजा ये हुआ कि लोग अपनी ही अस्मिता और अस्तित्व बचाए रखने के लिए संघर्ष करने लगे....राज्य में जिस तरह से औद्योगिकरण का अंत हुआ....उससे बेरोजगारी बढ़ी, गरीबी उफान पर आ गई....वाममोर्चा की जमीन अधिग्रहण नीति ने लोगों को पार्टी के खिलाफ नजरिया ही बदल दिया... जो सिंगुर और नंदीग्राम में हुआ...उसकी उम्मीद वहां के लोगों को भी नहीं थी....और यही लेफ्ट के ताबूत में अंतिम कील साबित हुई....ममता ने इस मुद्दे को जिस तरह से भुनाया उससे लोगों का भरपूर का समर्थन उन्हें मिला..वो बंगाल की किस्मत बदलने के लिए काफी था...यानी बुद्धदेव भट्टाचार्य के 11 साल और उनकी पार्टी के 34 साल का राज खत्म हो गया...वामपंथियों ने इन 34 सालों में क्या खोया इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बुद्धदेब भी अपनी सीट नहीं बचा पाए। 

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