Monday, October 5, 2015

बिसवाड़ा के बहाने..

कहते हैं सियासत बहुत बड़ी चीज होती है..जिस तरह बिना तड़के की दाल...दाल नहीं रहती...उसी तरह बिना धर्म के सियासत...सियासत नहीं रहती...यानी सियासत अगर चमकानी है...तो उसे रगड़ने की जरूरत नहीं..बल्कि लपकने की जरूरत होती है...रगड़-रगड़ कर सियासत चमकाई भी नहीं जा सकती...बल्कि असल सियासदान वही है...जो मौका मिलते ही मौके को लपक ले....जिस देश में भूखे आदमी की रोटी से लेकर मुर्दे आदमी के कफन भी सियासतदानों की नजरों से नहीं बचती...उस देश में गाय कौन सी बड़ी बात है....ये देश ऐसा है...जहां किसी के लिए गाय माता हो जाती है...तो किसी के लिए गाय दाता...दादरी के बिसाहड़ा में हुआ क्या था...गाय के लिए इंसानों ने एक इंसान की जान ले ली...फिर वही गाय उनके लिए दाता बन गई...जो सियासत चमकाने के लिए इस गली से उस गली तक दौड़ लगाते हैं...बिसाहड़ा कांड में एक इंसान की जान ही तो गई थी...कौन सी बड़ी बात है...लेकिन किसी ने क्या सोचा....बड़े प्रदेश के इस छोटे कांड ने हमारे बेरोजगार बैठे नेताओं पर कितना बड़ा अहसान किया...अगले चुनावों तक खाली ही तो बैठे थे....केंद्र में 4 साल बाद चुनाव...यूपी में दो साल बाद...और बिहार में पांच दिन बाद....तब तक क्या करते...कुछ तो चाहिए...जिसे झुनझुने की तरह वो बजा सके...बड़ी मुश्किल से तो ये मौका मिला है...उस पर भी ये मीडिया वाले सवाल कर रहे...आखिर कोई कैसे चुप बैठ सकता है...हमें तो सियासतदानों की पीठ थपथपानी चाहिए...सही वक्त पर सही पकड़ लेते हैं...जैसे ही भनक लगी...दौड़ लिए बिसाहड़ा तक...शर्मा जी पहुंचे...ओवैसी भी पहुंचे...संगीत सोम से लेकर केजरीवाल तक इठला आए...राहुल बाबा भी कैसे पीछे रहते....उन्होंने भी बिसाहड़ा की पवित्र धरती पर कदम रख ही लिया...करना क्या था...अफसोस के दो शब्द ही तो बोलने थे...और वही किए...बोले कम...पाए ज्यादा...सच भी यही है ...गज धन और प्रेम धन से कम थोड़े ही होता है गौ धन...इसलिए सियासतदानों के लिए ये गौ रतन धन से कम नहीं...ई गौधन दूध ही नहीं...सियासत भी देता है

Tuesday, August 23, 2011

गांधी की विरासत को मिल गई पहचान

ये कौन जानता था कि आजादी के 64 साल बाद भी गांधी टोपी का जादू ऐसा चलेगा...कि हर कोई इसे देशभक्ति का प्रतीकचिन्ह मानने लगेगा....कल तक जो गांधी टोपी सिर्फ नेताओं के सिर पर सजती थी......आज वही गांधी टोपी हर भारतवासी के लिए ताज बन चुकी है...जिस गांधी टोपी को देख युवापीढ़ी बिदकती थी....आज उस गांधी टोपी को बनाने के लिए युवा दूसरों को गुर सिखा रहे हैं....जी हां फैशन से बाहर हो चुकी गांधी टोपी की शान आज अन्ना ने फिर लौटा दी है....74 साल के इस बुजुर्ग ने दिखा दिया है कि भले ही गांधी आज हमारे बीच नहीं हो...लेकिन उनकी महत्वपूर्ण विरासत को आज भी लोग दिलों में संजो कर रखे हैं....एक तरह से अन्ना ने गांधी टोपी की नई परिभाषा दी है...और उसे राजनीतिक सीमाओं के पार पहुंचा दिया है....युवापीढ़ी भी अब समझने लगी है...कि गांधी जी के विचारों को अगर करीब से जानना है...तो सिर पर गांधी टोपी तो सजानी ही होगी....वैसे गांधी टोपी का इतिहास काफी पुराना है....इस तरह की टोपी पहनने का चलन गांधी जी के जन्म से भी पहले का था....लेकिन गांधी जी ने इसे नई पहचान दी...इतिहास बताता है कि जब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में वकालत करते थे...तब अंग्रेजों ने एक नियम बना रखा था....कि हर भारतीय को अपनी फिंगरप्रिंट्स देने होंगे....गांधी जी इस नियम का विरोध करने लगे और उन्होंने इसके लिए अपनी गिरफ्तारी दे दी...जेल में भी गांधी जी को भेदभाव से दो चार होना पड़ा...क्योंकि अंग्रेजों ने भारतीय कैदियों के लिए एक विशेष तरह की टोपी पहनने का आदेश दे रखा था। ..आगे चलकर गांधी जी ने इस टोपी को अपने सिर पर धारण कर लिया....ताकि आगे चलकर अपने साथ हो रहे भेदभाव को याद किया जा सके....यही टोपी गांधी टोपी के तौर पर जानी गई....हालांकि बाद में गांधी जी ने इस टोपी को कभी नहीं पहना...लेकिन देश के नेताओं और सत्याग्रहियों ने इस टोपी को आसानी से अपना लिया....कांग्रेस ने इस टोपी को गांधीजी के साथ जोड़ा और अपने कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहित करना शुरु कर दिया...जो बाद में एकता और राष्ट्रीयता की पहचान बन गई....लेकिन आजादी के बाद धीरे धीरे ये टोपी लोगों से दूर होती गई...फैशन ने भी इस टोपी को देश की जनमानस से काफी दूर कर दिया... सिर्फ स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्रता दिवस पर ही ये टोपी नेताओं के सिर पर ही दिखाई पड़ने लगी...लेकिन अन्ना की वजह से आज लाखों लोग इस टोपी को पहनकर सड़कों पर भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहे है

क्रांति का गवाह रामलीला मैदान


जहां से अन्ना भ्रष्टाचार के खिलाफ क्रांति का बिगूल फूंक रहे हैं....उस रामलीला मैदान का इतिहास बेहद पुराना है....इसी मैदान से आजादी की लड़ाई लड़ी गई...और इसी मैदान से जेपी की संपूर्ण क्रांति का शंखनाद हुआ...इसी मैदान से जय जवान जय किसान का नारा लगा....तो इसी मैदान से कहा गया सिंहासन खाली करो कि जनता आती है... रामलीला मैदान...जहां पर पूरे देश की निगाहें टिकी है....जहां से अन्ना भ्रष्टाचार के खिलाफ हुंकार भर रहे हैं....हां से क्रांति की नई इबारत लिखी जा रही है....आज वही रामलीला मैदान इतिहास के पन्नों में दर्ज होने के लिए एक बार फिर से तैयार है....यहां पर जुटे हजारों हजारों की तादात में बच्चे, युवा और बुजुर्ग इस इतिहास का गवाह बन रहे हैं......इतिहास गवाह है कि महात्मा गांधी से लेकर जयप्रकाश नरायण तक ने आंदोलन का बिगुल इस मैदान पर फूंका....128  के हो चुके रामलीला मैदान में पहली बार 1883 में अंग्रेजों ने अपने सैनिकों के लिए कैंप तैयार करवाया था...इसके बाद पुरानी दिल्ली के लोगों ने इस मैदान पर रामलीलाओं का आयोजन करना शुरु कर दिया...जिसके बाद इसकी पहचान रामलीला मैदान के तौर पर स्थापित हुई....अजमेरी गेट से लेकर तुर्कमान गेट के बीच 10 एकड़ में फैले रामलीला मैदान में एक लाख लोग खड़े हो सकते हैं....दिसबंर 1952 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कश्मीर मुद्दे को लेकर सत्याग्रह किया....देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भी 1956 और 1957 में इसी मैदान पर एक विशाल जनसभा की थी....28 जनवरी 1961 को ब्रिटन की महारानी एलिजाबेथ ने रामलीला मैदान में ही एक जनसभा को संबोधित किया था....फिर 26 जनवरी 1963 में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की मौजदूगी में लता मांगेशकर ने ऐ मेरे वतन के लोगों-- गीत गाकर नेहरू जी आंखे नम कर दी थी.... इसी तरह 1965 में पाकिस्तान के खिलाफ जंग में तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने जय जवान जय किसान का नारा देकर देश के वीर जवानों के साथ पहली बार किसानों का भी मान बढ़ाया था....1972 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश के निर्माण और पाकिस्तान के खिलाफ जंग जीतने के बाद जश्न मनाने के लिए एक बड़ी रैली की....25 जून 1975...को ये मैदान जेपी आंदोलन का गवाह बना....उन्होंने उस वक्त जनता को संबोधित करते हुए रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तिया दोहराई...सिंहासन खाली करो कि जनता आती है....जिसके बाद डरी सहमी इंदिरा सरकार ने इमरजेंसी का ऐलान कर दिया था...इसके बाद फरवरी 1977 में विपक्षी पार्टियों ने एक बार फिर इसी मैदान को अपनी आवाज जनता तक पहुंचाने के लिए चुना...जिसमें जगजीवन राम, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी और चौधरी चरण सिंह जैसे दिग्गज एक साथ मंच पर नजर आए...इसके बाद राजनीतिक दलों सहित कई संगठनों ने रामलीला मैदान पर रैलियां और कार्यक्रम करते आए हैं....ये वही रामलीला मैदान है....जहां योगगुरु बाबा रामदेव ने काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगूल फूंका था...आज वही राम लीला मैदान में अन्ना अनशन कर एक बार फिर इतिहास दोहरा रहे हैं 

Wednesday, June 29, 2011

मिट गई चवन्नी

महंगाई की चुभन क्या होती है....ये कोई उनस पूछे...जिन्होंने चवन्नी की दुनिया देखी है....देखी है चवन्नी की बड़ी से बड़ी औकात...भले ही जेब में आज 100 रुपये का नोट हो...लेकिन तब की चवन्नी के आगे इस 100 रुपये की खुशियां कुछ भी नहीं.... महंगाई की मार से चवन्नी इस तरह बेबस हो जाएगी...किसी ने सोचा तक नहीं था....अब तो कहावतों में ही चवन्नी का जिक्र बाकी रह जाएगा। 30 जून को चवन्नी जब विदा लेगी...तो अपने पीछे ढेर सारी कहानियां और दिल में उठते उन टीसों को भी पीछे छोड़ जाएगी...जब चवन्नी मंहगाई की आंच में तिल तिल कर अपनी अंतिम सांसे गिन रही थी...मंहगाई की मार और सरकार के फैसलों से चवन्नी की छोटी बहनें पहले ही काल के गर्भ में समा चुकी हैं....उनमें एक पैसे, दो पैसे, पांच पैसे, दस पैसे और बीस पैसे के सिक्के शामिल हैं...अब बारी इसकी है...बुरे लोगों को भले ही चवन्नी कहा जाता हो....लेकिन हकीकत में चवन्नी थी बड़ी अनमोल....एक चवन्नी में हफ्तेभर का गोला...या छटाक भर मूंगफली बड़ी आसानी से मिल जाती थी...भले ही यकीन ना आए...लेकिन कई शहरों में तो सिनेमा का टिकट भी चवन्नी में ही मिल जाया करता था.....लेकिन आज तो बस पूछिए ही मत...महंगाई बढ़ने के साथ साथ पैसे की कीमत भी घटती चली गई....चवन्नी ही क्या यहां तक की अठन्नी भी अब ढूंढे नहीं मिलती...महानगरों में तो ये कब की गायब हो चुकी है...आज बाजार में भी ना तो 25 पैसे में कुछ मिलता है और ना 50 पैसे में....यानी जिस तरह चवन्नी को रुखसत किया जा रहा है...जल्द ही वो दिन भी आएगा जब बाजार से अठन्नी यानी 50 पैसे को भी बेआबरू किया जाएगा....जानकारों की माने तो किसी भी सिक्के को बाजार में लाने और हटाने से पहले आरबीआई का करंसी डिविजन मार्केट पर नजर रखता है...और मार्केट से मिलने वाली फीडबैक के आधार पर ही फैसला लिया जाता है...महंगाई बढ़ने की वजह से जिन सिक्कों की जरूरत खत्म हो जाती है...उन्हें मार्केट से हटा दिया जाता है...लेकिन अगर कोई चाहे तो हटाए गए सिक्कों के बदले चालू करेंसी रिजर्व बैंक से ले सकता है...लेकिन भला कौन चवन्नी की इस अनमोल विरासत को अपने से दूर करना चाहेगा....चवन्नी पहले भी अनमोल थी...अब भी है...और आने वाले वक्त में इसका जलवा बरकरार रहेगा...कीमत के रुप में ना सही...एक अनमोल विरासत के रुप में...मशहूर शायर आफताब लखनवी ने चवन्नी के कसीदे कुछ इस काढ़े थे....
मेरे वालिद अपना बचपन याद करके रो दिए...कितनी सस्ती थी नमकीन चार आने की...पूरा बोतल मेरा भाई तन्हा ही पी गया...मैने मजबूरी में लस्सी भर के पैमाने में पी

Tuesday, June 7, 2011

सियासतबाज हुआ जूता

धन्य है वो जूता...जो पैरों से निकलकर किसी के सिर पर तन जाए...लेकिन ऐसी किस्मत सब जूतों को नसीब नहीं होती....ऐसे जूते तो बिरले ही बनते हैं....अब जरा सोचिए कितनी खुशनसीब होगी वो फैक्टरी...जिसने अपनी कोख से सिर पर सवार होने वाले जूते का जन्म दिया....धन्य तो वो ब्रांड भी है...जिसने जूते की इस खास प्रजाति की खोज की....ऐसे जूते आम नहीं होते...भले ही ये आम आदमी के पैरों की शोभा बढ़ाते हों....लेकिन अगर सिर पर तनने की बात आए तो आम आदमी को धोखा दे देते हैं.....क्योंकि ये खास के सिर पर चलना कुझ ज्यादा पसंद करते हैं....जैसे जूता ना हो गेंदे का फूल हो....अरे ये भी कोई बात हुई....आम आदमी से दगाबाजी और खास के सिर से मुहब्बत...ये कहां का इंसाफ है...लेकिन इसमें जूते का कसूर भी नहीं...मानव सभ्यता के इतिहास से ही इंसान ने जूते को सिर पर चढ़ा रखा है...बात बात में जूते का जिक्र...जैसे जूता ना होकर कोई बम बारूद हो....मैं तो उसके साथ जूते से पेश आउँगा....मैं तो भरी पंचायत में उसे जूते से जलील करुंगा...और ज्यादा चूं चापड़ करोगे तो जूता खाओगे....इस तरह के जुमलों ने ही जूतों को महान बना दिया....वैसे अपने देश में जूतियाने का अजीब अजीब तरीके भरे हैं....कहा जाता है कि अगर किसी को जूतियाना हो तो...जूतियाने से पहले उस जूते को चार दिनों तक पानी में भीगों कर रख दो...इसके बाद किसी के सिर पर चढ़ाओ तो अच्छी आवाज करता है....सारे मुहल्ले में तक आवाज फैल जाएगी...खुदा ना खास्ते वहां फिल्म प्रोड्यूसर मौजूद हो तो जूतियाने की आवाज को बैकग्राउंड म्यूजिक तक बना दे....जूतियाने का एक और भी तरीका है...और ये तरीका तो खासा लोकप्रिय है....अगर किसी के सिर पर गिनती के सौ जूते मारने हो तो....निन्यानबे जूते लगाओ और फिर गिनती ही भूल जाओ...फिर गिनती एक से शुरु करो...और फिर निन्यानबे तक....यानी तब तक लगाते रहो जब तक कि खुद थक कर चूर ना हो जाओ....लेकिन दुख की बात है कि अब जूतों ने पुरानतनपंथी बनने से इनकार कर दिया है....वक्त के साथ साथ जूतों ने भी तरक्की कर ली है....इन पर भी सियासत का रंग चढ़ने लगा है.....अब ये जूते आम आदमी के सिर पर बरसने से इनकार कर देते हैं....लेकिन जब सामने कोई सियासत दान बैठा हो तो तब देखिए इस जूते का रंग....गिरगिट की तरह रंग बदल देता है...उसके सिर पर तनने के लिए मचलने लगता है....और तब तक मचलता रहता है जब तक उस सियासतदाने के सिर पर तन ना जाए...भई वाह...दरअसल जूतों में ये ख्वाईश अचानक नहीं पैदा ली...सियासतदानों के सिर पर चढ़ने की लत उसे टमाटर और अंडों से लगी...जब टमाटर और अंडे नेताजी के मुंह पर फूटकर शहीद हो जाते हैं...तो वो क्यों नहीं...बस ये जलन ही जूतों को महत्वकांक्षी बना दिया....आज जूता अपने पूर्वज जूतों के मुकाबले ज्यादा ऊंचाई पर है....उसकी की औकात बस पूछिए मत....जबसे इराकी पत्रकार मुंतजर अल जैदी ने जूते को बुश महोदय के महमंड पर सवार कराया है तब से उसकी तबियत कुछ ज्यादा ही रंगीन हो चली है....उसे अपनी प्रतिभा का ज्ञान हो चुका है...दुनिया जीतने की ख्वाईश पैदा हुई तो चीन जा पहुंचा...और फिर भारत के भी फेरे लगा लिये...पहले पी चिदंबरम इसके लपेटे में आए...उन पर बरसा...फिर नवीन जिंदल..फिर येदियुरप्पा....और अब जनार्दन द्विवेदी साहब के सिर पर तन कर खुद को धन्य मान रहा है....पर जूता भाई हमें मत समझाना...हम भी कुछ घाघ किस्म के पत्रकार है....हम जानते हैं कि ख्वाइशे कभी नहीं मरा करती...और तू तो महत्वकांक्षी हो गया है...और अब किसी और के सिर की मरम्मत करने के लिए सोच रहा होगा

Saturday, May 14, 2011

वो पांच भूले

पश्चिम बंगाल...देश का एक ऐसा राज्य जो 34 सालों से एक पार्टीतंत्र के कब्जे में रहा...34 सालों से गरीबी, हिंसा और कुशासन से जूझता रहा....लेकिन इस प्रदेश में भी बदलाव का सूरज निकल ही आया। .या यूं कहिए कि लोगों ने जिन सपनों को मरा हुआ मान लिया था...अब वे सपने कुलांचे मारने लगे है....लेकिन बड़ा सवाल ये है कि ये .जीत किसकी है...राज्य की जनता की...ममता के जादू की...या फिर एक पार्टीतंत्र के खात्मे की.....आज भले ही ममता अपनी जीत पर इतरा रही हों....लेकिन इसके पीछे ना तो उनकी दहाड़,  ना जिद और ना ही उनका कोई करिश्मा है....बल्कि इसके पीछे लेफ्ट के वे 34 साल हैं....जिसने बंगाल को हाशिये पर ला खड़ा किया..इसलिए अगर वे अपनी जीत के लिए किसी को शुक्रिया अदा करती हैं...तो सबसे पहले लेफ्ट का शुक्रिया अदा करें ...दरअसल माकपा ने अपनी 34 साल की इस जिंदगी में एक नहीं कई बुनियादी भूलें की...पहली भूल, राज्य में पार्टी और प्रशासन के बीच भेद का खात्मा...जिसके तहत प्रशासन के नियम कायदे की जगह पार्टी के आदेशों ने ले लिया....दूसरी भूल संस्थाओं और क्लबों के जरिए सामाजिक नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश...इसे दूसरे नजरिए से देखें तो पार्टी के कार्यकर्ताओं ने आम जनता की रोजमर्रा की जिंदगी में बड़े स्तर पर दखलअंदाजी की...तीसरी भूल,  अपराधियों को खुली छूट देना. और उन्हें पार्टी के लिए अवैध वसूली जैसे कामों में लगाना....चौथी भूल नाकाबिल नेताओं के हाथ में पार्टी की कमान देना, मसलन जिन्हें मार्क्सवाद का ज्ञान नहीं, भाषा की जानकारी नहीं उन्हें भी पार्टी के अखबार, पत्रिकाएँ और टीवी चैनल चलाने का हक दे दिया गया...और तो और जिस विधायक या सांसद की साख पर बट्टा लगा...उन्हें भी अपने पद पर बिठाए रखा गया....और आखिर में पांचवी भूल है राज्य प्रशासन का मानवाधिकारों की रक्षा के प्रति अनदेखी...इसका नतीजा ये हुआ कि लोग अपनी ही अस्मिता और अस्तित्व बचाए रखने के लिए संघर्ष करने लगे....राज्य में जिस तरह से औद्योगिकरण का अंत हुआ....उससे बेरोजगारी बढ़ी, गरीबी उफान पर आ गई....वाममोर्चा की जमीन अधिग्रहण नीति ने लोगों को पार्टी के खिलाफ नजरिया ही बदल दिया... जो सिंगुर और नंदीग्राम में हुआ...उसकी उम्मीद वहां के लोगों को भी नहीं थी....और यही लेफ्ट के ताबूत में अंतिम कील साबित हुई....ममता ने इस मुद्दे को जिस तरह से भुनाया उससे लोगों का भरपूर का समर्थन उन्हें मिला..वो बंगाल की किस्मत बदलने के लिए काफी था...यानी बुद्धदेव भट्टाचार्य के 11 साल और उनकी पार्टी के 34 साल का राज खत्म हो गया...वामपंथियों ने इन 34 सालों में क्या खोया इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बुद्धदेब भी अपनी सीट नहीं बचा पाए। 

Friday, April 15, 2011

ये दिल्ली है साहेब !

ये दिल्ली है साहेब....यहां चकाचौंध है....आसमान छूती बिल्डिंगें हैं....बड़ी बड़ी कंपनियों के साइनबोर्ड है...सड़क पर दौड़ती गाड़ियां हैं...और....नेताओं के सफेद खद्दर है...लेकिन दिनकर कहते हैं कि यमुना कछार पर बैठी विधवा दिल्ली रोती है....मुगलों की सरपरस्ती के लिए नहीं....इस शहर के अदद रहनुमाओं के लिए....लेकिन कौन समझाए उन्हें....आज की दिल्ली बदल गई है....अब ये दिल्ली सफेद खद्दरवालों की कहलाती है....इसमें अफसोस नहीं, खुशी है...शहर के रहनुमा मिल गए हैं....सिर्फ रहम मिलना बाकी है.....मशहूर कवि जौक को भी बड़ा गुमान था अपनी दिल्ली और दिल्ली की गलियों पर...कह गए...कौन जाए जौक, दिल्ली की ये गलियां छोड़कर....जौक नहीं गए...यहीं रह गए....इन्हीं तंग गलियों में जिंदगी की खुशबू तलाशते....पर अब जौक का जमाना नहीं है...तंग गलियों में खुशबू नहीं बदबू मिलती है....गंदगी मिलती है...गलियों से निकलें तो टूटी सड़कें मिलती है.....हां ये दिल्ली है साहेब....अब इन गलियों में बेबस और मजबूर इंसानियत रहती है....जो हरदम टकटकी लगाए रहती है रहनुमाओं पर...थोड़ी सी रहम की तलाश में....लेकिन रहम के नाम पर आश्वासन मिलता है...कोरे वायदे और झूठे आश्वासन....इसमें रहनुमाओं की नहीं...सफेद खद्दर का दोष है साहेब...जिसमें इंसान समाते ही कब संगदिल बन जाता है...उसे पता ही नहीं चलता....उसे ना तो आंखों से दिखाई पड़ता है और ना कानों से सुनाई ही पड़ता है....इंसानियत पुकारती है....आओ देखो...थोड़ा करीब से देखो....देखो जौक की इस दिल्ली को...देखो दिल्ली की सूरते हाल को....देखो टूटी फूटी इन सड़कों को...देखो सड़कों पर लगे कूड़े के अंबार को.....और महसूस करो नाक में छेद कर देने वाली इससे निकल रही दुर्गंध को....लेकिन उन्हें पता है कि हमारे रहनुमा बहरे हैं और सावन के अंधे भी...उन्हें तो सब तरफ हरा ही हरा दिखाई प़ड़ता है....चिल्लाने से कुछ फायदा नहीं

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