Friday, April 15, 2011

ये दिल्ली है साहेब !

ये दिल्ली है साहेब....यहां चकाचौंध है....आसमान छूती बिल्डिंगें हैं....बड़ी बड़ी कंपनियों के साइनबोर्ड है...सड़क पर दौड़ती गाड़ियां हैं...और....नेताओं के सफेद खद्दर है...लेकिन दिनकर कहते हैं कि यमुना कछार पर बैठी विधवा दिल्ली रोती है....मुगलों की सरपरस्ती के लिए नहीं....इस शहर के अदद रहनुमाओं के लिए....लेकिन कौन समझाए उन्हें....आज की दिल्ली बदल गई है....अब ये दिल्ली सफेद खद्दरवालों की कहलाती है....इसमें अफसोस नहीं, खुशी है...शहर के रहनुमा मिल गए हैं....सिर्फ रहम मिलना बाकी है.....मशहूर कवि जौक को भी बड़ा गुमान था अपनी दिल्ली और दिल्ली की गलियों पर...कह गए...कौन जाए जौक, दिल्ली की ये गलियां छोड़कर....जौक नहीं गए...यहीं रह गए....इन्हीं तंग गलियों में जिंदगी की खुशबू तलाशते....पर अब जौक का जमाना नहीं है...तंग गलियों में खुशबू नहीं बदबू मिलती है....गंदगी मिलती है...गलियों से निकलें तो टूटी सड़कें मिलती है.....हां ये दिल्ली है साहेब....अब इन गलियों में बेबस और मजबूर इंसानियत रहती है....जो हरदम टकटकी लगाए रहती है रहनुमाओं पर...थोड़ी सी रहम की तलाश में....लेकिन रहम के नाम पर आश्वासन मिलता है...कोरे वायदे और झूठे आश्वासन....इसमें रहनुमाओं की नहीं...सफेद खद्दर का दोष है साहेब...जिसमें इंसान समाते ही कब संगदिल बन जाता है...उसे पता ही नहीं चलता....उसे ना तो आंखों से दिखाई पड़ता है और ना कानों से सुनाई ही पड़ता है....इंसानियत पुकारती है....आओ देखो...थोड़ा करीब से देखो....देखो जौक की इस दिल्ली को...देखो दिल्ली की सूरते हाल को....देखो टूटी फूटी इन सड़कों को...देखो सड़कों पर लगे कूड़े के अंबार को.....और महसूस करो नाक में छेद कर देने वाली इससे निकल रही दुर्गंध को....लेकिन उन्हें पता है कि हमारे रहनुमा बहरे हैं और सावन के अंधे भी...उन्हें तो सब तरफ हरा ही हरा दिखाई प़ड़ता है....चिल्लाने से कुछ फायदा नहीं

बेरुखी की ऊंची दीवारें

महानगरों की चकाचौंध के बीच सबकुछ ठीक ठाक नहीं है....या यूं कहिए कि जिस तरह रिश्तों में दूराव पैदा होने लगी है....उस तरह से कई जिंदगियां बेबस और गुमानामी की काल कोठरी में कैद होती जा रही है....नोएडा की अनुराधा और सोनाली भी महानगरों में फैलते अंधेरे की एक कड़वी हकीकत है....देश की राजधानी दिल्ली ने इससे पहले भी तन्हाई की डंक से तिल तिल कर मरती कई जिंदगियों को देखा है....एक दूसरे से जुदा हो जाने का खौफ हो...या फिर किसी अपने को खो जाने का गम....हर बार उन जिंदगियों को काल कोठरी में कैद कर जाती है...लेकिन अचरज तो तब होती है कि जब समाज भी उस भयानक तस्वीर को देखने के बाद कोई सबक नहीं लेता....चलिए सोनाली और अनुराधा के बहाने ही सही...दिनकर के शब्दों में वैभव कि दिवानी दिल्ली के सभ्य समाज की कुछ भयानक तस्वीर पर नजर डाल लेते हैं.... अगस्त 2007 में दिल्ली के कालकाजी इलाके में भूख और गुमनामी की मारी तीन बहनें...जिनमें से एक ने दम तोड़ दिया....माता-पिता की मौत के बाद इन तीनों ने खुद को अंधेरी कोठरी में कैद कर लिया था....डॉली, पूनम और नीरू नाम की ये तीनों बहनें कई बरसों से एक वक्त के खाने पर गुजारा कर रही थी....एक दिन ऐसा भी आया कि जब उनके पास खाने के लिए नमक पानी और चीनी से ज्यादा कुछ नहीं रह गया....नीरु एक दिन भूख सह नहीं सकी...और चल बसी....लेकिन बाकी दोनों बहनों ने उसकी लाश को कमरे में ही रहने दिया...उस घर में वे तब तक रही जब तक कि पड़ोस को उस घर से तेज बदबू नहीं आने लगी...सबसे बड़ी बात तीनों बहने पढ़ी लिखी थी...और उनमें से दो ने नौकरी भी की थी...इसके ठीक दो महीने बाद यानी अक्टूबर 2007 में दिल्ली के पॉश इलाके ग्रेटर कैलाश की एक कोठी से आ रही तेज दुर्गंध ने पड़ोसियों को परेशान कर दिया....पुलिस को खबर मिलने के बाद कोठी का दरवाजा तोड़ा गया तो उसमें करोड़पति मनिंदर सिंह भंडर की सड़ी गली लाश पाई गई....कमरे में अंधेरा फैला था..खाने का कोई सामान घर में नहीं मिला....पड़ोसियों ने बताया कि मनिंदर सिंह किसी से बात नहीं करते थे....मां की मौत के बाद मनिंदर को गहरे डिप्रेशन ने आ घेरा था...उम्मीद जताई गई कि मनिंदर को तन्हाई और खौफ ने मार डाला....इसी तरह सितंबर 2010 में पुलिस ने साकेत के एक फ्लैट से एक ऐसी महिला को बाहर निकाला...जो 30 दिन से अपनी मां की लाश के साथ कमरे में बंद थी....यहां तक कि उसे ये भी पता नहीं था कि उसकी मां मर चुकी है.....शालिनी मेहरा नाम की ये महिला तलाकशुदा थी...और अपनी मां के साथ ही उस फ्लैट में रह रही थी...यानी कि अकेलेपन ने शालिनी को गहरे अवसाद में डाल दिया था...बहरहाल ये चारों घटनाएं इस शहर के उन अंधेरे कोनों को दिखाने के लिए काफी है...जहां लोगों की निगाह भी नहीं पड़ती....इन चारों घटनाओं में एक ही बात सामने निकलकर आ रही है....और वो है अकेलापन का अहसास और अपनों के खोने का गम...लेकिन समाज की बेरुखी भी कम नहीं रही...क्योंकि समाज ने उनसे रिश्ता ही नहीं रखा...उनकी सुध ही नहीं ली........ऐसे में ये सवाल उठता है कि क्या ये एक सभ्य समाज की नियती बन चुकी है कि हर शख्स अपने अपने अपने अंधेरे कोने में चुपचाप जिएं और मर जाए....क्या बेरुखी की दीवारें इतनी ऊंची हो चुकी है कि साथ रहने वाला मौत को पुकार रहा होता है और कोई सुनने वाला नहीं होता....बहरहाल,इंसानी रिश्तों की टूटती कड़ी को समेटने का कोई ना कोई रास्ता ढूंढना ही होगा

Wednesday, April 6, 2011

छोटे गांधी की जिद

अन्ना हजारे की जिंदगी उतार चढ़ावों से भरी हुई है....बेहद ही गरीब परिवार में जन्मे अन्ना ने देश को हमेशा नई राह दिखाने का काम किया है.....महाराष्ट्र के अपने पैतृक गांव की कायापलट करने के बाद उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेड़ दी....आज वे देश को भ्रष्टाचार से निजात दिलाने के लिए कमर कस चुके हैं....भ्रष्चार को जड़ से मिटा देने का संकल्प लेने वाली इस बूढ़ी काया...और जिद्दी इंसान आज देश का सुपरहीरो बन चुका है । बड़े अड़ियल हैं ये छोटे गांधी...कोई लालच नहीं...कोई डर नहीं...मर भी जाएं तो कोई बात नहीं...लेकिन भ्रष्चाटाचार के खिलाफ उठी आवाज को मद्धम नहीं पड़ने देंगे...जन लोकपाल बिल से कम तो कुछ भी नहीं....कोई समझौता नहीं...कोई मरव्वत नहीं....जिद हो तो ऐसी...ऐसी जिद तो सिर्फ महात्मा गांधी में ही देखने को मिलती थी....जब उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई का बिगुल फूंका था....आज वही जिद समाजसेवी अन्ना हजारे में भी देखने को मिल रही है.....लोकपाल बिल के लिए आमरन अनशन पर जा बैठे हैं अन्ना हजारे....15 जून 1938 को महाराष्ट्र में जन्मे अन्ना हजारे का असली नाम किशन बाबूराव हजारे है....बेहद ही गरीब परिवार में जन्मे अन्ना की जिंदगी की शुरुआत मुंबई के दादर स्टेशन पर फूल बेचने से शुरु होती है....लेकिन बचपन से ही महापुरुषों के विचारों पर चलने का शौक उन्हें आगे जाकर एक सामाजिक कार्यकर्ता बना देता है....परिवार का भरण पोषण की खातिर अन्ना 1960 में सेना में भर्ती हुए....1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध के दौराव वे पंजाब में सेना के ट्रक ड्राइवर की हैसियत से तैनात हुए....लेकिन बदकिस्मती से पाकिस्तान ने हवाई हमला कर दिया...जिसमें अन्ना ने किसी तरह गाड़ी से कूदकर अपनी जान बचाई....इसके बाद 1975 में अन्ना ने स्वैच्छिक सेवानिवृति ले लिया....यहीं से शुरु होती है अन्ना की सामाजिक जिंदगी....महाराष्ट्र के अहमदनगर के अपने पैतृक गांव रालेगांव सिद्धी में उन्होंने गांव वालों को सर्वांगीण विकास के लिए प्रेरित करना शुरु कर दिया....गांव के कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए उन्होंने बेहतर सिंचाई व्यवस्था, वर्षा जल को रोकने के लिए नहरों की खुदाई और मिट्टी संरक्षण में महत्वूर्ण भूमिका निभाई....नतीजतन आर्थिक निर्भरता में उनका गांव देश का रोल मॉडल बन गया....इनके प्रयासों से पूरे इलाके में अनाज बैंकों की नींव रखी गई....शिक्षा, स्वास्थ्य, शराबबंदी और सामूहिक विवाह के जरिए अन्ना ने अपने पूरे इलाके की तकदीर ही बदल दी....इस महत्वपूर्ण उपलब्धि के लिए भारत सरकार ने अन्ना हजारे को 1992 में पद्म विभूषण से नवाजा....बाद में वे सूचना के अधिकार कानून से जुड़ गए...और उसके लिए काम करना शुरु कर दिया...जिसकी बदौलत आज हम इस कानून का इस्तेमाल कर रहे हैं....इससे पहले 1989 में उन्होंने भ्रष्टाचार विरोधी जनांदोलन का गठन किया...जो आज 27 जिलों के 222 ब्लॉक में फैला हुआ है....अन्ना की इस मुहिम का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि....उन्होंने महाराष्ट्र में पिछले आठ सालों के दौरान अन्ना 400 सरकारी अफसरों और 7 मंत्रियों को कुर्सी छोड़ने पर मजबूर कर दिया... अब अन्ना ने जनलोकपाल बिल लाने के लिए अपनी जिद ठान ली है....हौसले बुलंद है....और सुनहरे भारत की तस्वीर को करीब से निहारने की तमन्ना बाकी....मौत से पंगा लेने वाले इस बूढ़ी काया में जिद को अगर करीब से देखनी हो तो चले आइए दिल्ली के जंतर मंतर...देखिए कैसे इस हाड़ मांस की काया ने सरकार को भी सोचने पर मजबूर कर दिया है

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